بعْد زوْبعةِ..
ليْلِيَ الصّامِتٍ..
أقْرئُكِ..
فُسْحة لِقاءٍ ورْدِيٍ..
على كفِّيأكْتُبُكِ..
عِشْق بقاءٍ أبدِيٍّ..
فِي عُيُونٍ..
حالِمةٍ..
صابِرةٍ..
ما زالتْ تُرابِطُ..
بعْد مطرِ..
جُنُونِيَ الْمنْفِيِّ..
أُطرِّزُكِ..
وشْم عِناقٍ..
منْسِيً..
على كتِفِي..
أُغنِّيكِ..
نغم نقاءٍ أزلِيٍّ..
أمام..
حُشُودِ الْعُبُورِ..
الْمقْصِيِّ..
مازالتْ تُبارِكُ..
فماذا..
لوْ نخْرُج..
لوْ نخْلع..
سِتارالْسِّجالِ..
عنْ أنامِلِنا..
ماذا..
لوْ نلْتحِمُ..
ننْسجِمُ علنًا..
كمِدادِ..
مِحْبرةِ دِيوانٍ..
على الْورقِ لنْ تجِفّ..
كسيْلِ..
ليْلِ شلّالٍ ..
على الدّرقِ..
لنْ يعِفّ..
و نبْدأ..
قصِيدة خطِّ الزّمنِ..
هكذا..
لِنرْنُوا..
أوْفِياء لِلْحياةِ..